Class 7, Lesson 26: पौलुस की तीसरी मिश्नरी यात्रा ( आगे )

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पौलुस की तीसरी मिश्नरी यात्रा पौलुस अंताकिया से एक और मिश्नरी यात्रा शुरू करने के लिये तैयार था। वह यात्रा करके उस स्थान को गया जो अब तुर्की कहलाता है और दक्षिण गलातिया और पिरगा गया जहाँ उसने कलीसियाओं की स्थापना किया था। वहाँ वह समूहों में गया, उन्हें प्रोत्साहित किया और प्रभु में बढ़ने में उनकी सहायता किया। इसी बीच अक्विला और प्रिसकिल्ला जिन्हें वह इफिसुस में छोड़ आया था उन्होंने अपना व्यवसाय जारी रखा और सब्त के दिनों में आराधनालय जाने लगे। एक सब्त के दिन उनकी मुलाकात एक प्रचारक अपुल्लोस से हुई। वह अलेकजेंड्रिया का रहनेवाला, जन्म से यहूदी और पुराने नियम का ज्ञाता था। उन दिन अलेकजेंड्रिया एक शैक्षणिक शहर था जिसमें एक बड़ा पुस्तकालय था और शिक्षा के मामलें में विश्वप्रसिद्ध था। अक्विला और प्रिसकिल्ला तुरंत ही इस जवान से प्रभावित हो गए थे। उसने यीशु के विषय सटीकता से कहा और सिखाया। लेकिन उसे केवल यूहन्ना के बप्तिस्मा के विषय ही मालुम था और मसीही सिद्धांत का उसे गहन ज्ञान की कमी थी। अक्विला और प्रिसकिल्ला को ऐसा लगा कि उसे सिखाने की जरूरत है। इसलिये उसे बिना अपमानित किए उन्होंने उसे सिखाने का निर्णय किया। उन्होंने उसे घर ले गए और उसे परमेश्वर के विषय ज्यादा सटीकता से समझाया। जब एक बार उसने संपूर्ण सत्य को समझ लिया तो उसे रोकने वाली कोई ताकत नहीं थी। वह अखाया जाना चाहता था और वहाँ भी प्रचार करना चाहता था। इफिसुस के विश्वासियों ने इस विषय उसे प्रोत्साहित किया और उन्होंने वहाँ के विश्वासियों को पत्र लिखा कि वे उसका स्वागत करें। जब वह कुरिन्थ पहुँचा तो परमेश्वर ने वहाँ की कलीसिया को दृढ़ करने के लिये उसका काफी उपयोग किया। उसने सार्वजनिक चर्चा में यहूदियों के सभी तर्कों का सामर्थशाली रूप से खंडन किया और वचन से बताया कि यीशु ही मसीह था। इस समय तक पौलुस तुर्की की यात्रा करने हुए इफिसुस आया। वहाँ उसकी मुलाकात यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले के 12 चेलों से हुई। जब उसने उनसे बातचीत किया तो उसने जाना कि मसीही विश्वास का ज्ञान काफी अधूरा था। उन्होंने विश्वास किया रहा होगा कि यीशु ही मसीहा है - यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले ने यह सत्य उन्हें बताया था परंतु क्या वे मसीही थे? पौलुस ने उन्हें एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा, "क्या तुमने विश्वास करने के बाद पवित्र आत्मा पाया?" नहीं, हमने तो पवित्र आत्मा की चर्चा भी नहीं सुनी। उन्होंने ईमानदारी से कहा। यह जानने के लिये कि वे ठीक किस पर विश्वास करते थे, उसने उनसे फिर पूछा, "तो फिर तुमने किसका बपतिस्मा लिया? उन्होंने कहा, "यूहन्ना का बपतिस्मा।" तब पौलुस ने उन्हें बताया कि यूहन्ना का बपतिस्मा परमेश्वर के सामने पश्चाताप का प्रतीक था और यूहन्ना का यीशु की तरफ इशारा उस व्यक्ति से था जिस पर उन्हें विश्वास करना चाहिये। जब उन्होंने यह सुना तो उन्होंने विश्वास किया और प्रभु यीशु के नाम में बपतिस्मा लिया। फिर पौलुस ने उन पर हाथ रखा और उन्होंने पवित्र आत्मा पाया। उन्होंने अन्य भाषाएँ बोली और भविष्यद्वाणी किया। नया नियम दिए जाने से पहले परमेश्वर ऐसी ही अलौकिक शक्तियों के द्वारा कार्य करता था। आज हम जानते हैं कि हम उद्धार के साथ ही पवित्र आत्मा प्राप्त करते हैं। जिस क्षण कोई व्यक्ति प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करता है, उसमें पवित्र आत्मा आ जाता है, वह पवित्र आत्मा का अभिषेक प्राप्त करता है, और वह मसीह की देह में आत्मा द्वारा बपतिस्मा पाता है। तीन माह तक पौलुस इफिसुस के आराधनालय में जाता रहा। जब कुछ लोगों ने उसका विरोध किया और लोगों को उसकी शिक्षा के विरुद्ध उकसाने लगे तो उसने आराधनालय छोड़ दिया और अपने शिष्यों को लेकर तरन्नुस के स्कूल में ले गया जहाँ वह उन्हें रोज सिखा सकता था। प्रेरित ने दो वर्षों तक शिष्य बनाया और दूसरों को सिखाने के लिये उन्हें भेजा। परिणामस्वरूप, समस्त एशिया के प्रांत ने प्रभु यीशु का वचन सुना, जिनमें यहूदी और यूनानी दोनों थे। परमेश्वर ने चमत्कार करने के लिये पौलुस को अधिकार दिया इतना कि जब उसका रूमाल या वस्त्र के टुकडे़ भी बीमारों पर रखे जाते थे, वे चंगे हो जाते थे, और यदि उनमें दुष्टात्माएँ होती तो वे भी निकल जाती थीं। कुछ यहूदी जो झाड़ा फूँकी करते थे उन्होंने भी जगह जगह यह कहकर प्रभु यीशु के नाम से दुष्टात्मा निकालने की कोशिश किया, जिस यीशु का प्रचार पौलुस करता है, मैं तुम्हें उसी का शपथ देता हूँ।" स्किसवा के सात पुत्रों, एक यहूदी याजक ने भी इसे दुष्टात्माग्रस्त व्यक्ति पर आजमाया। लेकिन उस दुष्टात्मा ने उनको जवाब देकर बोली, "यीशु को मैं जानती हूँ और पौलुस को भी पहचानती हूँ, परंतु तुम कौन हो?" और उस मनुष्य ने जिसमें दुष्टआत्मा थी, उन पर लपककर और उन्हें वश मे लाकर ऐसा उपद्रव किया कि वे नंगे और घायल होकर उस घर से निकल भागे। सभी लोगों को यह बात मालुम हो गई और उन तब पर भय छा गया। इस प्रकार परमेश्वर के नाम को महिमा मिली। यह विजय इफिसुस में कई लोगों के जीवन में मोड़ का बिन्दू बन गई। जिन्होंने विश्वास किया वे आते गए और अंगीकार करते गए और अपनी रीतियों का प्रदर्शन करते गए। उनमें से कई लोग जो जादू-टोना करते थे, उन्होंने अपनी पुस्तकें लाकर सबके सामने जला दिया, और उन्होंने उनकी कीमत करीब 10,000 डॉलर लगाया। इन बातों के बाद पौलुस ने आत्मा में ठाना कि मकिदुनिया और अखाया से होकर यरूशलेम में जाऊँ और उसके बाद वह रोम भी जाना चाहता था। उसने तीमुथियुस और इरास्तुस को मकिदुनिया भेज दिया और खुद कुछ दिनों के लिये एशिया में रूक गया। यही वह समय था जब उसने कुरिन्थियों की पहली पत्री लिखा। पौलुस की सेवकाई के फलस्वरूप कई इफिसी लोग मूतियाँ छोड़कर प्रभु की ओर मुड़ गए। इसके कारण मूर्ति बनाने वालों का व्यवसाय गिरने लगा। देमेत्रियुस सुनार उनमें से एक था जिसे गंभीर नुकसान हुआ। वह डायना के चांदी के मंदिर बनाता था। उसने और लोगों को इकट्ठा किया और कहा, "हे मनुष्यो, तुम जानते हो कि इस काम से हमें कितना धन मिलता है। तुम देखते और सुनते हो कि केवल इफिसुस में ही नही, वरन प्रायः सारे आसिया में यह कहकर इस पौलुस ने बहुत से लोगों को समझाया आने भरमाया भी हैं, कि जो हाथ की कारागिरी है वे ईश्वर नहीं।" जब उन्होंने यह सुना तो वे क्रोध से भर गए और चिल्ला चिल्लाकर कहने लगे, "इफिसियों की अरतिमिस महान है।" और सारे नगर में बड़ा कोलाहल मच गया, और लोगों ने मकिदुनियावासी गयुस और अरिस्तर्खुस को जो पौलुस के संगी यात्रा थे पकड़ लिया और एक साथ रंगशाला दौड़ गए। पौलुस स्वयँ भी भीतर जाना चाहता था और भीड़ से बात करना चाहता था,परंतु उसे चेलों और नगर के प्रधानों ने रोक दिया। इस समय तक भीड़ बेकावू हो चुकी थी। अधिकांश लोग नहीं जानते थे कि वे किस लिये वहाँ इकट्ठे हुए थे। सिंकदर नामक एक यहूदी आगे बढ़कर भीड़ को संबोधित करना चाहता था। परंतु जब भीड़ को पता चला कि वह एक यहूदी है तो उन्होंने करीब दो घंटो तक विरोध में चिल्लाते रहे "इफिसियों की अरतिमिस महान है।" ऐसे कठिन समय में नगर मंत्री ने भीड़ को शांत करने में सफलता पा लिया। उसने कुछ सच्चाइयों को चुनकर उनके सामने रखा, और कुछ कानूनी बातें बताकर भीड़ को विदा किया। जब हुल्लड़ थम गया तब पौलुस ने चेलों को बुलवाया और उन्हें समझाया और उनसे विदा होकर मकिदुनिया की ओर चला गया। उसने जहाज से उत्तर त्रोआस की ओर समुद्र किनारे यात्रा किया और मकिदुनिया को गया। वहाँ पहुँचकर वह फिलिप्पी, थिस्सलुनीके के विश्वासियों को समझाकर आगे बढ़ा। संभवतः थिस्सलुनीके से वह इलिरिकुम गया और वहाँ सुसमाचार का प्रचार किया (रोमियों 15:19)। वहाँ से वह यूनान के आखिया में आया। वहाँ उसने तीन माह बिताया। इसी समय के दौरान जब वह गयुस के घर में रूका था। (रोमियों 16:23) उसने रोमियों की पत्री लिखा था। मूलतः पौलुस ने कुरिन्थ से जहाज द्वारा सीधे सीरिया की यात्रा की योजना बनाया था। लेकिन उसे पता चला कि यहूदियों ने उसके विरुद्ध मार्ग में षड़यंत्र रचा था तो उसने मकिदुनिया से थल मार्ग से जाने का निश्चय किया। मकिदुनिया से वापसी में उसके साथ जो लोग थे वे इस प्रकार हैः बिरीया का सोपत्रुस जो पुर्रूस का बेटा था, थिस्सलुनीकियों में से अरिस्तर्खुस और सिकुन्दुस, दिरबे का गयुस और तीमुथियुस और तुखिकुस और त्रुफिमुस। ऐसा दिख पड़ता है कि उपर बताए गए सात भाइयों ने आगे त्रोआस की यात्रा किया जबकि पौलुस फिलिप्पी गया। वहाँ वह लूका से मिला और विश्वासियों के साथ फसह का पर्व मनाने के लिये रूक गया। सप्ताह के पहले दिन जब वे रोटी तोड़ने के लिये इकट्ठे हुए तो अगले दिन उनसे विदा लेने के हिसाब से उनसे बातें करने लगा और आधी रात तक बातें करता रहा। वहाँ यतुखुस नामक एक जवान खिड़की पर बैठा था गहरी नींद में सो गया और जब पौलुस बोल रहा था, वह नींद के झोंके में आकर 3 रे मंजिल से गिर पड़ा, और मरा हुआ पाया गया। परंतु पौलुस नीचे गया, उससे लिपट गया और कहा, घबराओ नहीं, क्योंकि उसका प्राण उसी में है।" वे फिर से उपर आ गए और प्रभु भोज में शामिल हुए। फिर उन्होंने सामुहिक भोजन किया और पौलुस ने त्रोआस के विश्वासियों से विदा किया। अब पौलुस ने मिलेतुस की यात्रा किया जो एक छोटा बंदरगाह वाला शहर था। उसके साथ यूरोप और आसिया की कलीसियाओं के प्रतिनिधियों का एक समूह था जिनका उद्देश्य उनकी कलीसियाओं द्वारा यरूशलेम के जरूरतमंद विश्वासियों की मदद के लिये इकट्ठे करके भेजे हुए धन को उसे सौंपना था। मिलेतुस से पौलुस ने इफिसुस के प्राचीनों को संदेशा भेजा कि वे उससे मिलने आएँ। उनके आने के बाद पौलुस ने एक भव्य उपदेश दिया जो मसीही अगुवों के लिये था, जिनसे वह बहुत गहरा प्रेम करता था। इस उपदेश में इफिसुस में उसके द्वारा की गई 3 वर्ष की सेवकाई की समीक्षा थी, वर्तमान स्थिति का वर्णन और इफिसी अगुवों की भविष्य की जवाबदारियों का उल्लेख था। संदेश के अपने अंतिम भाग में पौलुस ने उन्हें यह कहकर परमेश्वर के हाथों सौंपा, "और अब मैं तुम्हें परमेश्वर को और उनके अनुग्रह के वचन को सौंप देता हूँ जो तुम्हारी उन्नति कर सकता है और सब पवित्र किए गए लोगों मे साझी करके मीरास दे सकता है।" जहाज में सवार होने से पहले उसने घुटने टेककर सबके साथ प्रार्थना किया। जो लोग वहाँ इकट्ठे हुए थे, उन्होंने रोना शुरू कर दिया और पौलुस को गले लगाया और उसे बार-बार चूमने लगे विशेषकर इस बात से दुखी होकर जो उसने कहा था कि वे फिर उसका मुँह नहीं देखेंगे। कुछ वर्षों पहले वह उनके पास एक परदेशी होकर आया था अब अनंतकालीन मित्र होकर उनसे विदा हो रहा था। मिलेतुस से पौलुस और उसके साथी जहाज से कोस की ओर खाना हुए जहाँ उन्होंने रात बिताया। अगले दिन वे रूदुस द्विप गए जो दक्षिणपूर्व में है। वहाँ से वे पतरा गए। पतरा से वे दूसरे जहाज में बैठें जो सीरिया के समुद्री तट फीनीके जा रहा था, जिसमें सूर मुख्य शहरों में से एक था। क्योंकि जहाज को वहाँ माल उतारना था। पौलुस और उसके मित्रों ने वहाँ के विश्वासियों के बीच सात दिन का डेरा किया। वहाँ पौलुस को कई बार चेतावनी दी गई कि वह यरूशलेम में कदम न रखें। सात दिनों के बाद जब उनके विदा होने का समय आया तो विश्वासी लोग उनकी पत्नियों और बच्चों के साथ उन्हें समुद्र तट तक छोड़ने आए। प्रार्थना और प्रेमपूर्वक अलविदा कहने के बाद जहाज किनारे से रवाना हो गया। सूर से निकलकर जहाज पुतलिमायस और फिर कैसरिया को गया। यहाँ समूह प्रचारक फिलिप के घर ठहरा। फिलिप की चार कुँवारी बेटियाँ थी जो भविष्यद्वक्तीन थी। जब वे वहाँ ठहरे थे तब वहाँ अगबुस नामक एक भविष्यद्वक्ता आया। जब उसने पौलुस को देखा तो उसने उसका बेल्ट लेकर अपने ही पेट और हाथ बांध लिया और कहा, "पवित्र आत्मा यह कहता है कि जिस मनुष्य का यह कटिबंध है उसको यरूशलेम में यहूदी इसी रीति से बांधेंगे, और अन्य जातियों के हाथ में सौंपेगे।" जब उसके साथियों और कैसरिया के मसीहियों ने यह सुना तो उन्होंने उसे यरूशलेम जाने से रोका। परंतु उसने उनसे कहा कि वह न केवल बांध जाने के लिये परंतु प्रभु यीशु मसीह का नाम में मरने को भी तैयार है। जब उन्हें समझ गया कि उसने वहाँ जाना सोच रखा था तो उन्होंने यह कहा, "प्रभु की इच्छा पूरी हो" यरूशलेम में आने के बाद प्रेरित और उसके मित्रों का भाइयों द्वारा हार्दिक स्वागत किया गया। पौलुस की मिश्नरी यात्राएँ यरूशलेम में आकर खत्म हो जाती हैं।

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