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याकूब और यहूदा की पत्रियों का सर्वेक्षण क) याकूब क्या यह कारगर होगा? यह वह प्रश्न है जो हम सभी किसी वस्तु को खरीदने के समय पूछते हैं। यह निश्चित है कि विज्ञापन कई अच्छी विशेषताओं का बखान करते हैं, परंतु वे उत्पादन किस तरह कार्य करते हैं? अंततः कोई भी व्यक्ति उस कंप्यूटर के दाम क्यों चुकाएगा यदि वह केवल सिद्धांतों में ही अच्छा जान पड़े? उसी प्रकार कौन उस विश्वास को स्वीकार करेगा जो किसी व्यक्ति में वास्तविक परिवर्तन न ला सके? याकूब के अनुसार कर्म बिना विश्वास व्यर्थ है। उचित विश्वास, विश्वासी के जीवन में अच्छे कार्यों को उत्पन्न करता है। क्या आप किसी प्रोत्साहन की खोज में हैं ताकि आपका विश्वास सचमुच कार्य करे? कि आपका विश्वास कठिन समयों में भी बना रहे या बढ़े? ठीक है। तो आइये हम याकूब की पत्री को देखें - और जाने किस तरह यीशु मरा और पुन जी उठा, न केवल हमें परमेश्वर के क्रोध से छुड़ाने परंतु हमें उसके स्वरूप विकसित करने के लिये। लेखक: नए नियम में चार लोगों का नाम याकूब है: (1) यूहन्ना का भाई जो जबदी के पुत्रों में से एक था (मरकुस 1:19), (2) हल्फई का पुत्र (मरकुस 3:18), (3) यहूदा का पिता (इस्करियोति नहीं) (लूका 6:16), और (4) यीशु का भाई (गलातियों 1:19)। हल्फई का पुत्र, यद्यपि उसे शिष्य बनाया गया है, आनुपातिक रूप से अस्पष्ट है जैसे कि यहूदा का पिता याकूब अस्पष्ट है। जबदी का पुत्र याकूब और यूहन्ना का भाई, यीशु के घनिष्ट शिष्यों में से एक था, परंतु सन 44 में उसकी शहादत (प्रेरितों के काम 12:2) इस बात को कम ही संभावित करते हैं कि उसी ने यह पत्री लिखा। इसलिये इस पत्री को लिखने वाला सर्वोत्तम व्यक्ति प्रभु का आधा भाई याकूब ही है। यद्यपि यह बात स्पष्ट है कि यीशु के किसी भी भाई ने उसकी संसारिक सेवकाई के दौरान उस पर विश्वास नहीं किया था (यूहन्ना 7:5), लेकिन अंत में याकूब ने उस पर विश्वास किया शायद प्रभु के पुनरूत्थान के बाद (1 कुरि 15:7)। याकूब आगे चलकर "कलीसिया के खंबों" में से एक बन गया था (गलातियों 2:9)। बहुत से विद्वानों का मानना है कि याकूब ने इस पत्र को सन 45 से 49 के बीच लिखा था जो उसे नए नियम की सबसे प्राचीन पुस्तक बनाता है। फिर भी पूरे समय, यह पत्री उसके मूल पाठकों के समान हम पर भी लागू होती है। याकूब की पत्री नए नियम का नीतिवचन है क्योंकि इसे बुद्धि के साहित्य के रूप में लिखा गया है। यह बात प्रमाणित है कि याकूब पुराने नियम से और पहाड़ी उपदेश से गहन रीति से प्रभावित था। इस पत्र की रूप रेखा इस तरह है: (1) विश्वास की परीक्षा (1:1-18); (2) विश्वास की विशेषताएँ (1:19-5:6); और विश्वास की विजय (5:7-20)। (1) विश्वास की परीक्षा (1:1-18) पत्री का पहला भाग परिक्षाओं के समय उचित विश्वास के गुणों को विकसित करता है। इब्री मसीहियों का अभिवादन करने के बाद याकूब तुरंत अपने पहले विषय को बताता है, अर्थात विश्वास की बाह्य परीक्षा। ये परीक्षाएँ परिपक्व सहनशीलता और परमेश्वर पर निर्भरता के लिये होती है, जिसकी ओर विश्वासी बुद्धि और बल प्राप्ति के लिये फिरता है। भीतरी परीक्षाएँ या प्रलोभन उसकी ओर से नहीं आते जो "हर अच्छे वरदान" देता है (1:17)। बुराई करने की ये इच्छाएँ शुरूवात में ही परखी जानी चाहिये अन्यथा वे विध्वंसकारी परिणामों को लाएंगी। (2) विश्वास की विशेषताएँ (1:19-5:6) परीक्षा के विषय धर्मी अनुक्रिया यह मांग करती है कि हम सुनने में तत्पर, और बोलने में धीर और क्रोध में धीमे हों। (1ः19) और यही बात बाकी पत्री का सारांश है। सुनने में तत्परता, परमेश्वर के वचन का आज्ञापालन के प्रति अनुक्रिया को सम्मिलित करती है (1ः19-27)। सच्चा सुनना मलतब मात्र सुन लेने से बढ़कर होता है, वचन को ग्रहण करके उस पर अमल किया जाना चाहिये। सच्चे विश्वास का परिणाम कार्य होना चाहिये। विश्वास के कई स्पष्टीकरण देने के बाद, अब याकूब पुस्तक के मुख्य उद्देश्य को बताता है: वास्तविक विश्वास वैध कार्यों को उत्पन्न करता है। बचाने वाला विश्वास क्रियात्मक विश्वास है (पद 14)। यह शब्दों से बढ़कर है और जरूरतमंद तक पहुँचता है। जो विश्वास अच्छे कार्य उत्पन्न नहीं करता वह मृतक और निरूपयोगी है। जरूरी नहीं कि परमेश्वर पर विश्वास की मात्र घोषणा सच्चे विश्वास का प्रतीक है। ऐसा तो दुष्टात्माएँ भी करती हैं (पद 19)। अब्राहम यद्यपि बहुत पहले ही बचाया गया था, परमेश्वर ने उसे इसहाक को बलि चढ़ाने को कहा, "उसने आज्ञा पालन के द्वारा विश्वास को प्रगट किया (पद 21-23)। यरीहो की रहाब वेश्या ने अपना विश्वास इस्राएली भेदियों की सहायता करने के द्वारा प्रगट की (पद 25)। कर्म उद्धार पैदा नहीं करते, परंतु उद्धार कर्म को पैदा करता है (पद 24) (इफिसियों 2:8-10 भी पढ़ें)। एक कार्य से दूसरे कार्य पर जाते हुए याकूब बताता है कि किस तरह एक जीवित विश्वास जीभ को नियंत्रित करता है (बोलने में धीमा)। जीभ छोटी होती है, परंतु उसमें बड़ी भलाई या उतनी ही बड़ी बुराई करने की शक्ति होती है। केवल क्रियाशील विश्वास के द्वारा ही परमेश्वर की सामर्थ जीभ को नियंत्रित कर सकती है (3:1-12)। ठीक जैसे जीभ के दुष्ट और धर्मी उपयोग होते हैं, उसी प्रकार बुद्धि या ज्ञान के भी शैतानी या ईश्वरीय प्रगटीकरण होते हैं (3:13-18)। याकूब मानवीय बुद्धि को ईश्वरीय बुद्धि के सात गुणों से तुलना करता है। संसारिकता और धनसंपत्ति विवादों को जन्म देते हैं जो विश्वास के लिये नुकसानदायक होते हैं। संसारिक प्रणालियाँ परमेश्वर के विरोध में हैं , और इन आनंद की बातों का पीछा या लगाव लोभ, इष्र्या, झगड़े और अहंकार उत्पन्न करते हैं। विश्वास का एकमात्र पर्याय नम्र और पश्चातापी आत्मा के साथ परमेश्वर को समर्पण है। यह दूसरों के प्रति भी परिवर्तित नीति को जन्म देगी (4:7-12)। समर्पण और नम्रता की यह आत्मा धन संचय के प्रयासों पर लागू की जानी चाहिये विशेषकर इसिलये क्योंकि धन घमंड, अन्याय और स्वार्थ को बढ़ावा दे सकता है। 3) विश्वास की विजय (5:7-20) याकूब उसके पाठकों को वर्तमान जीवन के क्लेशों को धीरज से सह लेने के लिये प्रोत्साहित करता है क्योंकि उसके बाद प्रभु के आने की आशा भी है (5:7-12)। धनी उन्हें सताएंगे और परिस्थितियाँ उनके विपरीत हो जाएंगी, परंतु जैसा कि अय्यूब का उदाहरण सिखाता है, विश्वासियों को यह निश्चय हो जाना चाहिये कि उनके साथ परमेश्वर की कोई अनुग्रहकारी योजना जुड़ी है। याकूब इस पत्री को प्रार्थना और मेल-मिलाप पर कुछ व्यवहारिक शब्दों के साथ बंद करता है (5:13-20)। धर्मी व्यक्तियों की प्रार्थना विश्वासियों की चंगाई और मेलमिलाप के लिये काफी है। यदि पाप पर विजय नहीं पाई गई तो वह बीमारी और मृत्यु भी ला सकता है। हमें यह याद रखने की जरूरत है कि हममें से कोई भी व्यक्ति ऐसे कार्य नहीं करता जो मसीह में हमारे विश्वास को परखते हों। फिर भी हमारी आशा हमारी अपनी धार्मिकता में नहीं परंतु प्रभु में है (2 कुरि 5:21)। हमारा उद्धार उसी में सुरक्षित हैं, और केवल उसी में (यूहन्ना 10:27-29)। हम मसीह के क्रूस पर किए गए सिद्ध कार्य में विश्राम पाते हैं। चूँकि हम उसके हैं, वह हमेशा पश्चातापी उड़ाऊ पुत्रों को वापस अपने घर में लेने के लिये तत्पर रहता है। कया मसीहत कारगर होती है? बेशक होती है। और इसकी जीवनभर की गारंटी होती है - अनंतकालीन जीवनभर के लिये। ख) यहूदा विश्वास के लिये लड़ो। ये शब्द यहूदा के छोटे परंतु प्रभावशाली पत्र में युद्ध की पुकार के समान गूँजते हैं। एक अनुभवी कमांडर के समान यहूदा सेना को झूठे सिद्धांतों के विरुद्ध दृढ़ता से खड़े रहने और मसीह की सच्चाई का बचाव करने को कहता है। वास्तव में यहूदा ने अपनी कलम भिन्न प्रकार के पत्र को लिखने के लिये उठाया था। वह सामान्य मसीही विश्वास के विषय लिखना चाहता था। लेकिन पवित्र आत्मा ने उसे उस विश्वास के लिये यत्न करने को लिखने के लिये प्रेरित किया जो पवित्र लोगों को एक ही बार सौपा गया।" (पद 3)। खतरा उनसे हुआ जो कलीसिया के भीतर ही झूठी शिक्षाओं को बढ़ावा दे रहे थे। यहूदा सच्चे विश्वास के लिये यत्न करने की आज्ञा देता है। लेखक यहूदा स्वयं को यीशु मसीह का बंधुआ दास और याकूब का भाई कहकर परिचित कराता है (याकूब 1 क)। यह याकूब वही व्यक्ति है जिसने याकूब की पुस्तक लिखा और ये दोनों भी यीशु के आधे भाई थे (मत्ती 13:55, मरकुस 6:3)। यहूदा ने अपना संबंध यीशु से क्यों नहीं बताया? निश्चय सादगी और आदर के कारण। लेकिन वह स्वयं को यीशु का दास बताता है। इस पत्र को चार भागों में बाँटा जा सकता है: (1) यहूदा का उद्देश्य (पद 1-4); (2) झूठे शिक्षकों का वर्णन (पद 5-16), (3) झूठे शिक्षकों से बचाव (पद 17-23); और (4) आशीर्वाद वचन (पद 24-25)। 1) यहूदा का उद्देश्य (पद 1-4) यहूदा अपना पत्र उन विश्वासियों को संबोधित करता है जो "बुलाए गए" "पवित्र किए गए" और "सुरक्षित" किए हैं और उन्हें तीन प्रकार की आशीषें देता है दया, शांति और प्रेम (पद 1,2)। अभिवादन करने के बाद वह अपने लिखने का कारण बताता है। "हे प्रियो, जब मैं तुम्हें उस उद्धार के विषय में लिखने में अत्यंत परिश्रम से प्रयत्न कर रहा था, जिसमें हम सहभागी हैं तो मैंने तुम्हें यह समझाना आवश्यक जाना कि उस विश्वास के लिये पूरा यत्न करो जो पवित्र लोगों को एक ही बार सौंपा गया था। क्योंकि कितने ऐसे मनुष्य चुपके से हम में आ मिले हैं जिनके इस दंड का वर्णन पुराने समय में पहले ही से लिखा गया था, ये भक्तिहीन हैं, और हमारे परमेश्वर के अनुग्रह को लुचपन में बदल डालते हैं और हमारे एकमात्र स्वामी और प्रभु यीशु मसीह का इन्कार करते हैं।" विश्वास के शत्रु चुपके से कलीसिया में घुस गए थे और दो तरीकों से मसीही विश्वास के केन्द्र का दुरूपयोग कर रहे थे। पहला, उन्होंने परमेश्वर के अनुग्रह को संसारिक भोगविलास में लिप्त होने के लिये बदल लिया था। दूसरा, उन्होंने इन्कार किया कि यीशु शरीर में परमेश्वर था और सिखाया कि उसने केवल परमेश्वर के पास जाने के कई मार्गों में से एक मार्ग दिखाया। यहूदा पाठकों को प्रोत्साहित करता है कि वे झूठे शिक्षकों का सामना ऐसे करें जैसे एक कुश्ती लड़नेवाला हिम्मत न हारने के लिये दृढ़ संकल्प रखता है। वह उन्हें हिम्मत से यत्न करने को कहता है। 2) झूठे शिक्षकों का वर्णन (पद 5-16) इस खण्ड में यहूदा नास्तिक शिक्षकों को पाँच कारण बताकर उजागर करता है कि उन्हें ऐसे झूठे शिक्षकों के पीछे क्यों नहीं जाना चाहिये। (क) क्योंकि वे परमेश्वर के दंड के अधीन हैं (5-7) झूठे शिक्षक न्याय दंड के मार्ग पर हैं - वही दंड जो अविश्वासी इस्राएलियों, पतित स्वर्गदूतों और सदोम और अमोरा के लोगों को मिला था। ऐसे लोगों के पीछे चलने वाले हम सचमुच मूर्ख होंगे। (ख) क्योंकि वे निंदा करनेवाले हैं (8-10): वे उनके विचारों को ईश्वरीय सत्य से नहीं परंतु अपने स्वप्नों और राय से बनाते हैं। वे शरीर को अपवित्र करते और अधिकार का इन्कार करते हैं और प्रभुता को तुच्छ जानते हैं।" (पद 8) (ग) क्योंकि उनकी आत्मिकता खोखली है (11-13): वह इन लोगों की तुलना तीन आत्मिक विद्रोहियों के साथ करता है उत्पत्ति के कैन और गिनती के बालाम और कोरह - जो परमेश्वर द्वारा दोषी ठहराए गए। वह उनके चरित्र को प्रकृति के पाँच रूपकों द्वारा संक्षेप में बताता है। (घ) क्योंकि उनके मार्ग अधर्मी हैं (14-16) यहूदा, हनोक का संदर्भ देकर ऐसे लोगों पर परमेश्वर के दंड की पुष्टि करता है। फिर वह उनकी कुछ गतिविधियों के विषय बताता है (पद 16) 3) झूठे शिक्षकों से बचाव (पद 17-23) शत्रु का असली स्वभाव उजागर करने के बाद, यहूदा यह कहकर उसके पाठकों को सीधे संबोधित करता है, "पर हे प्रियो, इन बातों को स्मरण रखो" और उस प्रेरिताई चेतावनी की याद दिलाता है कि ऐसे लोग आएंगे और उन्हें ऐसे घातक नास्तिकता के हमले से बचने को कहता है। अगुवों को चाहिये कि वे अपने विश्वास मे परिपक्व हो जाएँ ताकि वे उन्हें बचा सकें जो छले या बहकाए जाते हैं या गलती से फंदे में फँस चुके है। 4) यहूदा का आशीर्वाद (पद 24-25) यहूदा अपने पत्र को चकित कर देनेवाले आशीर्वाद के साथ बंद करता है जो परमेश्वर की अचूक सुरक्षा को बताता है, "अब जो तुम्हें ठोकर खाने से बचा सकता है, और अपनी महिमा की भरपूरी से सामने मगन और निर्दोष करके खड़ा कर सकता है, उस एकमात्र परमेश्वर हमारे उद्धारकर्ता की महिमा और गौरव और पराक्रम और अधिकार, हमारे प्रभु यीशु मसीह के द्वारा जैसा सनातन काल से है, अब भी हो और युगानुयुग रहे। आमीन।"
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